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तरुणाई के सपने

सुभाषचन्द्र बोस

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1359
आईएसबीएन :81-263-1052-9

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प्रस्तुत बांग्ला निबन्धों पत्रों एवं भाषणों का हिन्दी रूपान्तर...

Tarunai ke sapne

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दिसम्बर 1928 के अन्तिम सप्ताह में, काँग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन से पूर्व, सुभाषचन्द्र बोस की पुस्तक ‘तॅरुणेर स्वप्न’ प्रथम बार प्रकाशित हुई। इसके दो वर्ष बाद प्रकाशित हुई ‘नूतनेर सन्धान’ फिर अनेक वर्ष बीते। पर सुभाषचन्द्र के स्वप्न आज तक भी सफल नहीं हुए—न नूतन का सन्धान ही शेष हुआ। दोनों पुस्तकों की ‘प्रारम्भिक बातें’ जैसी तब सत्य थीं, वैसी ही आज भी सत्य हैं। स्वप्न को रूपायित करने के लिए जिस ऐकान्तिकता, आग्रह एवं साधना की आवश्यकता है, वह हम अब तक अर्जित नहीं कर पाये।
हमारे देश में विद्वानों, विशिष्ट चिन्तकों एवं कार्यकर्ताओं का आभाव नहीं, परन्तु ऐसे व्यक्ति का अभाव अभी तक नहीं मिटा जो समस्त ज्ञान को दीप्ति-मण्डित करे। समस्त चिन्तन को फलीभूत करे समस्त प्रयासों को जय-मण्डित करे। सुभाषचन्द्र ने अपने विविध प्रबन्धों पत्रावलियों एवं भाषणों के माध्यम से ऐसे पौरुष की प्राप्ति के लिए पथ-निर्देश दिया है।
‘तॅरुणेर स्वप्न’ एवं ‘नूतनेर सन्धान’ के प्रकाशन के उपरान्त सुभाषचन्द्र ने कहा था कि भविष्य में इन दोनों पुस्तकों का संयुक्त संस्करण प्रकाशित हो। भारतीय ज्ञानपीठ के एक न्यासी श्री सीताराम सेकसरिया एवं श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के सौजन्य एवं सहयोग से सुभाषचन्द्र की यह इच्छा पूरी हुई—इससे हम सबको विशेष प्रसन्नता हुई है। पुस्तक को पढ़कर देश के अनेक उत्साही सपूत नये-नये कार्यों एवं प्रयासों को सफल बनाएँ, सुभाषचन्द्र के स्वप्न को सार्थक करने के निमित्त जागरुक हों—इसी आशा से नेता जी के जन्मोत्सव के शुभ अवसर पर उनकी मर्मवाणी अपने देशवासियों के हाथों में समर्पित करता हूँ। इति।

निवेदन

विगत 1330 से अब तक मेरे जो पत्र और निबन्ध विभिन्न सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं, उनमें से कुछ का संग्रह ‘तॅरुणेर स्वप्न’ नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। समयाभाव के कारण सभी पत्रों एवं निबन्धों का प्रकाशन सम्भव न हो सका। यह पुस्तक लोक प्रिय हुई तो भविष्य में अन्यान्य पत्र, लेख एवं भाषण संकलित रूप में प्रकाशित करने की इच्छा है। इति 10वाँ पौष, 1335।

आत्मनिवेदन

सन् 1921 में, असहयोग आन्दोलन के समय, श्री सुभाषचन्द्र बसु विदेश में अध्ययन-रत थे। उस समय उन्होंने राष्ट्रीय काँग्रेस में योग देकर देश-सेवा का अवसर प्राप्त करने के लिए देशबन्धु चित्तरंजन दास को दो पत्र लिखे थे, वो दोनों ही यहाँ प्रस्तुत हैं।
द यूनियन सोसाइटी
कैम्ब्रिज
16 फरवरी, 1921

प्रणामपुरस्सर निवेदन,
सम्भव है मुझे आप पहचानते न हों, किन्तु अपना परिचय दूँ तो शायद पहचान लेंगे। मैं एक विशेष अभिप्राय से यह पत्र आपको लिख रहा हूँ। किन्तु कार्य की कोई भी बात आरम्भ करने के पूर्व मुझे अपनी सिन्सियरटी का प्रमाण-पत्र दे देना होगा। इसलिए पहले अपना परिचय दे रहा हूँ।
मेरे पिता श्री जानकीनाथ बसु कटक में वकालत करते हैं और कुछ साल पहले वे वहाँ के सरकारी प्लीडर थे। मेरे एक भाई, श्री शरच्चन्द्र बसु, कलकत्ता हाई कोर्ट के बैरिस्टर हैं। आप मेरे पिता को जानते हों तो ठीक वरना मेरे भाई को निश्चय ही जानते होंगे।
मैं पाँच वर्ष पूर्व प्रेसिडेंसी कॉलेज, कलकत्ता में पढ़ता था। 1916 में जो गड़बड़ी हुई थी उसमें मुझे विश्वविद्यालय से एक्सपेल कर दिया गया। दो वर्ष नष्ट हो जाने के बाद मुझे अध्ययन की अनुमति मिली। तभी 1919 में मैंने बी.ए. पास किया एवं ऑनर्स सहित प्रथम आया। यहाँ 1919 के अक्तूबर में आया हूँ। अगस्त 1920 में मैं सिविल सर्विस परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ और चतुर्थ स्थान प्राप्त किया। इस वर्ष जून में मैं मॉरल साइन्स ट्रिपोस परीक्षा दूँगा और इसी महीने यहाँ की बी.ए. की डिग्री पा जाऊँगा। अब काम की बात बताऊँ। सरकारी नौकरी करने की इच्छा मेरी कतई नहीं है। मैंने घर बाबा और दादा को लिखा है कि मैं नौकरी नहीं करना चाहता। मुझे अभी कोई उत्तर नहीं मिला है। उनकी अनुमति के लिए यह बताना होगा कि मैं नौकरी छोड़ने के बाद कौन-सा टैंजिबिल काम करना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ, नौकरी छोड़कर देश-सेवा में कमर कसकर लग जाऊँ तो करने को बहुत-से काम हैं—जैसे, राष्ट्रीय कॉलेज में अध्यापन, पुस्तकों और समाचार पत्रों का प्रणयन तथा प्रकाशन, समितियों की स्थापना, जन-साधारण में शिक्षा-विस्तार आदि। और यदि मैं घरवालों के सामने यह सिद्ध कर सका कि मैं कौन-सा टैंजिबिल काम करना चाहता हूँ तो बहुत सम्भव है नौकरी छोड़ने की अनुमति सहज ही मिल जाय। मैं अगर उनकी अनुमति से नौकरी छोड़ सकूँ तो बिना अनुमति कोई काम करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। देश की दशा के सम्बन्ध में आप दूसरों से अधिक जानते हैं। सुना है, आप लोगों ने कलकत्ता एवं ढाका में राष्ट्रीय कॉलेज की स्थापना की है और अँग्रेज़ी तथा बांग्ला में ‘स्वराज्य’ नामक पत्र का प्रकाशन करना चाहते हैं। मुझे यह भी पता चला है कि बंगाल के विभिन्न गाँवों में ग्राम-समितियों की स्थापना हुई है।
मैं यह जानने को इच्छुक हूँ कि आप स्वदेश-सेवा के ऐसे पुनीत यज्ञ में मुझे कौन-सा काम दे सकेंगे। यों मुझमें विद्या-बुद्धि कुछ भी नहीं है, किन्तु तरुणोचित उत्साह मुझमें है, इसका विश्वास है। मैं अविवाहित हूँ।
पढ़ने के नाम पर मैंने फ़िलासफ़ी का कुछ अध्ययन किया है, क्योंकि कलकत्ता में मेरे ऑनर्स का विषय यही था और यहाँ भी इसी विषय में मैं ‘ट्रिपोस’ का अध्ययन कर रहा हूँ। सिविल सर्विस परीक्षा की कृपा से सर्वांगीण शिक्षा कुछ-कुछ पा सका हूँ—जैसे इकनॉमिक्स, पॉलिटिकल साइंस, अँगरेज़ी और यूरॅपीय इतिहास, इंग्लिश लॉ, संस्कृत, ज्याग्रफ़ी आदि। मुझे विश्वास है कि मैं स्वयं इस कार्य में लगूँ, तो यहाँ के दो-एक बंगाली बन्धुओं को भी खींच सकूँगा।
अभी अपने देश में किस प्रकार के काम आरम्भ किये जाने की सुविधा है, इसका अनुमान यहाँ बैठे नहीं लगाया जा सकता। वैसे मेरा खयाल है कि वहाँ मैं कॉलेज में अध्यापन और पत्रिकाओं में लेखन—इन्हीं दो कामों में हाथ बँटा सकता हूँ। मैं सोचता हूँ कोई क्लीयर-कट प्लान लेकर ही नौकरी छोड़ूँ। ऐसा करने के बाद मुझे कोई चिन्ता नहीं रहेगी और नौकरी छोड़ते ही अपने को कार्यक्षेत्र में संलग्न पाऊँगा।

आप आज बंगाल में देशसेवा-यज्ञ के प्रधान ऋत्विक् हैं- तभी आपको यह पत्र लिखा। आप लोगों ने भारत में आन्दोलन की जो लहर पैदा की है, उसकी तरंगें चिट्ठियों और समाचारपत्रों के द्वारा यहाँ पहुँचती रही हैं। यहाँ भी मातृभूमि का आह्वान गूँजा है। ऑक्सफ़ोर्ड से एक मद्रासी सज्जन अपना अध्ययन तत्क्षण स्थगित कर स्वदेश में काम करने की इच्छा से लौट रहे हैं। कैम्ब्रिज में अब तक काम कुछ नहीं हुआ, हालाँकि असहयोग के सम्बन्ध में चर्चा जोरों पर है। मुझे विश्वास है, यदि कोई पथ-निर्देश करे, तो उसका अनुसरण करनेवाले लोग यहाँ हैं।
आप बंगाल में हमारे सेवा-यज्ञ के प्रधान ऋत्विक् हैं, इसी से आज मैं अपनी यत्किंचित् प्राप्त विद्या, बुद्धि, शक्ति और उत्साह के साथ आप के सामने प्रस्तुत हूँ। चरणों में अर्पित करने लायक, मेरे पास विशेष कुछ नहीं है—है तो मात्र अपना यह मन और यह तुच्छ शरीर।
इस पत्र के लिखने का उद्देश्य, मात्र यह जिज्ञासा है कि इस बृहत् सेवा-यज्ञ में मुझे आप कौन-सा काम सौंप सकते हैं। यह जानकर ही मैं घर, बाबा-पिता और दादा (बड़े भाई) को वह लिख सकूँगा तथा अपनेआप को भी उसके लिए तैयार कर सकूँगा।
अभी मैं एक तरह से सरकारी नौकर हूँ-कारण ‘आई. सी. एस. प्रोबेशनर’ हूँ। आपको सीधे पत्र भेजने का साहस नहीं किया। भय था कहीं चिट्ठी ‘सेन्सर’ न हो। इसीलिए इसे अपने विश्वासी मित्र श्री प्रमथनाथ सरकार के हाथ भेज रहा हूँ। मेरे पत्र आपको ऐसे ही मिला करेंगे। आप मुझे बेशक पत्र लिख सकते हैं, यहाँ चिट्ठी ‘सेन्सर’ होने का भय नहीं है।
अपना सोचा-विचारा अभी मैंने यहाँ किसी को जानने नहीं दिया है। केवल वहाँ बाबा और दादा को लिखा है। मैं अभी सरकारी नौकर हूँ। इसलिए अनुरोध है कि जब तक मैं नौकरी छोड़ न दूँ, आपके द्वारा किसी को भी इसका आभास न मिले। और मुझे कुछ कहना नहीं है। आज मैं कटिबद्ध हूँ—आप केवल कार्य का आदेश कर दें।
मेरा अपना विचार है कि आप यदि ‘स्वराज्य’ का अँगरेज़ी संस्करण निकालें तो मैं उसके सब-एडीटोरियल स्टाफ़ में काम कर सकता हूँ या फिर ‘राष्ट्रीय कॉलेज’ में निचली श्रेणियों में अध्यापन कर सकता हूँ।
काँग्रेस के विषय में मेरे मन में अनेक प्रस्ताव हैं। मेरा खयाल है, काँग्रेस का अपना स्थायी केन्द्र होना ही चाहिए। उसके लिए अपना एक भवन हो। कुछ रिसर्च स्टूडेण्ट हों, जो देश की भिन्न-भिन्न समस्याओं पर शोध-कार्य करें। जहाँ तक मुझे मालूम है, इण्डियन करेंसी और एक्सचेंज के सम्बन्ध में काँग्रेस की कोई भी डेफ़िनिट पॉलिसी नहीं है। और नेटिव स्टेट्स के प्रति काँग्रेस का कैसा ऐटिट्यूड होना चाहिए, यह भी सम्भवतः स्थिर नहीं किया गया है। फ्रैंचाइज़ (फ़ार मेन एण्ड वीमेन) के विषय में काँग्रेस का मत क्या है, यह भी शायद ज्ञात नहीं है। और फिर डिप्रेस्ड क्लासेज़ के लिए हमें क्या करना है, लगता है यह भी काँग्रेस में अब तक तय नहीं किया है। इस विषय में (अर्थात् डिप्रेस्ड क्लासेज़ के सम्बन्ध में) कोई काम न होने की वजह से आज मद्रास के सभी नॉनब्राह्मिन, प्रो. गवर्नमेण्ट और ऐण्टी-नेशनलिस्ट हो गये हैं।
मेरा अपना खयाल है कि काँग्रेस का एक ‘परमानेण्ट स्टाफ’ होना आवश्यक है जो एक-एक समस्या को लेकर शोध-कार्य करे और अपने-अपने विषय में अपटुडेट फ़ैक्ट्स ऐण्ड फ़ीगर्स का संग्रह करे। इन फ़ैक्ट्स ऐण्ड फ़ीगर्स के संगृहीत हो जाने पर काँग्रेस कमिटी प्रत्येक विषय में एक पॉलिसी फ़ॉरमुलेट करे। आज अनेक राष्ट्रीय समस्याओं के सम्बन्ध में काँग्रेस की कोई स्थिर नीति नहीं है। इसलिए आवश्यक है कि काँग्रेस का एक स्थायी केन्द्र और स्थायी ‘स्टाफ़ ऑफ़ रिसर्च स्टुडेण्ट्स’ होना ही चाहिए।

इसके अतिरिक्त काँग्रेस को अपना एक ‘इण्टेलिजेंस डिपार्टमेण्ट’ खोलने की ज़रूरत है। यह इण्टेलिजेंस डिपार्टमेण्ट ऐसी व्यवस्था करे जिससे देश की सब अपटुडेट खबरें और फ़ैक्ट्स ऐण्ड फ़ीगर्स मिल सकें। प्रोपेगण्डा डिपार्टमेण्ट के द्वारा प्रादेशिक भाषाओं में पुस्तिकाएँ प्रकाशित हों, जिनका वितरण जन-साधारण में बिना मूल्य हो। राष्ट्रीय समस्याओं में इन पुस्तिकाओं के माध्यम से काँग्रेस की निर्धारित नीति का सर्व-साधारण को ज्ञान कराया जाय तथा उनके कारण भी स्पष्ट किये जाएँ। मैं बहुत लिख गया। आपके लिए ये सारी बातें पुरानी हैं। मेरे लिए तो बहुत ही नयी-सी लग रही हैं; मैं बिना लिखे रह नहीं सका। मुझे लगता है कि काँग्रेस से सम्बन्धित बहुत बड़ा काम हमारे सामने है, जिनमें से कुछ तो आपकी इच्छा से मैं कर ही सकता हूँ।
आप का अभिमत जानने को आकुल हूँ। यदि आप किसी को पत्रकारिता की शिक्षा के लिए विलायत भेजना चाहते हों तो मैं उसका भार ले सकता हूँ। ऐसा करने पर पैसेज़ और आउटफ़िट का खर्च बच जाएगा। लेकिन इस प्रकार का कोई भी दायित्व लेने के पहले मुझे नौकरी छोड़नी होगी। तब आप निश्चय ही मेरे भोजन एवं आवास के बारे में विचार करेंगे—कारण, नौकरी छोड़कर घर से रुपये लेना उचित नहीं होगा।
मैं सोचता हूँ, जून तक नौकरी छोड़कर, रवाना हो जाऊँ। यों जरूरत पड़ी तो रुक भी सकता हूँ।
मेरी वाचालता के लिए क्षमा करें। आशा है यथाशीघ्र उत्तर देंगे। मेरा प्रणाम स्वीकार करें। इति-
प्रणत,
सुभाषचन्द्र बसु

।।2।।

प्रणामपुरस्सर निवेदन
कई दिन पूर्व आपको एक पत्र लिख चुका हूँ—आशा है यथासमय वह मिल गया होगा।
आप कदाचित् यह सुनकर प्रसन्न होंगे कि नौकरी छोड़ने के विषय में मैं एक प्रकार से कृत-संकल्प हो गया हूँ। किन और कैसे कामों के लिए मैं उपयुक्त हो सकता हूँ, यह आपको पूर्व पत्र में लिख चुका हूँ। वहाँ कैसी क्या सुविधा है, यहाँ ठीक-ठीक अन्दाजा लगाना मुश्किल है। आप कार्यक्षेत्र में हैं अतः किस प्रकार के काम सम्भव हैं और अभी कैसे कार्यकर्ताओं की जरूरत है, आप बहुत अच्छी तरह जानते हैं।
मेरा यही अनुरोध है कि जब तक मेरे नौकरी छोड़ने की खबर आपको न मिले, तब तक इस विषय में किसी से कुछ न कहें।
यदि समयानुसार पैसेज़ पा गया तो नौकरी छोड़कर मैं जून के अन्त में देश लौटना चाहता हूँ। वहाँ पहुँच कर किस काम में लगना होगा, यह जानने को उत्सुक हूँ—कारण, तदनुसार ही अपने आपको तैयार करना होगा। इसके अतिरिक्त देश पहुँचकर जिस तरह का काम आरम्भ करूँगा, तदुपयोगी अध्ययन यहाँ रहकर भी करना सम्भव होगा। आशा है आप इस विषय में यथाशीघ्र लिखेंगे।
मैंने जो कुछ सोचा है वह आपको लिख रहा हूँ।
1. राष्ट्रीय कॉलेज में मैं अध्यापकी कर सकता हूँ। पाश्चात्य दर्शनशास्त्र मेरा यत्किंचित पढ़ा हुआ है।
2. आप यदि कोई दैनिक अखबार अँगरेज़ी में प्रकाशित करें तो मैं उसमें सब-एडीटोरियल स्टाफ में काम कर सकता हूँ।
3. आप लोग यदि काँग्रेस के अन्तर्गत एक रिसर्च डिपार्टमेण्ट खोलें तो मैं उसमें भी काम कर सकता हूँ। अपने पिछले पत्र में मैं इसका कुछ उल्लेख कर चुका हूँ। मुझे लगता है रिसर्च स्टुडेण्ट्स का एक संगठन हम लोगों को करना ही होगा। वह राष्ट्रीय जीवन की एक-एक समस्या से सम्बन्धित फ़ैक्ट्स का संग्रह करे। उन फ़ैक्ट्स पर विचार कर अपनी एक नीति निर्धारित करने के लिए काँग्रेस एक कमिटी नियुक्त करे। ‘करेंसी ऐण्ड एक्सचेंज’ और लेबर ऐण्ड फ़ैक्ट्री लेजिस्लेशन’ के सम्बन्ध में काँग्रेस की कोई विशिष्ट नीति नहीं है। ‘वैगरैंसी ऐण्ड पुअर रिलीफ़’ के सम्बन्ध में भी वही स्थिति है। स्वराज्य प्राप्ति के बाद हमारा कांस्टीट्यूशन कैसा हो, इस सम्बन्ध में भी, मुझे लगता है, काँग्रेस ने कोई विशिष्ट नीति निर्धारित नहीं की है। मेरा अपना खयाल है कि काँग्रेस-लीग स्कीम एकदम पुरानी पड़ गयी है। स्वराज्य की बुनियाद पर हमें अब भारत का कांस्टीट्यूशन तैयार करना ही होगा। आप अवश्य यह कह सकते हैं कि काँग्रेस अभी एक्ज़िस्टिंग आर्डर तोड़ने में व्यस्त है, अतः तोड़ने का काम जब तक पूरा न हो जाय, तब तक कांस्ट्रक्टिव काम शुरू करना असम्भव है लेकिन मेरा खयाल है कि अभी से तोड़ने के साथ-साथ नये प्रकार से रचनात्मक कामों को आरम्भ करना उचित होगा। राष्ट्रीय जीवन की किसी भी समस्या के विषय में कोई नीति निर्धारित करने के लिए परिपक्व विचार और ठोस अनुसन्धान अनिवार्य है। काँग्रेस यदि कम्प्लीट प्रोग्राम तैयार कर ले तो जिस दिन हमें स्वराज्य मिलेगा, उस दिन किसी भी विषय में किसी नीति के लिए सोचना नहीं पड़ेगा।

इसके बाद काँग्रेस को एक इण्टेलिजेंस डिपार्टमेण्ट चाहिए जहाँ से देश की सम्पूर्ण जानकारी मिल सके। इस विभाग से छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ प्रकाशित हों। भिन्न-भिन्न पुस्तिकाओं में भिन्न-भिन्न विषयों का निरूपण हो, जैसे विगत दस वर्षों में भारत के आय-व्यय (रेवेन्यू ऐण्ड एक्सपेण्डीचर) का क्या स्वरूप रहा तथा किस मद में आय एवं किस-किस मद में व्यय कितना और कैसे हुआ। इसी प्रकार अपने राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक पहलू का विवरण छोटी पुस्तिकाओं के द्वारा देश-भर में प्रचलित करना होगा।
4.जनसाधारण में शिक्षा-विस्तार की दिशा में काम करने की अनेक सुविधाएँ हैं। इस काम के साथ कोऑपरेटिव बैंक्स की स्थापना भी आवश्यक है।
5.सोशल सर्विस।
मेरा अपना विचार है कि इन कुछ कामों को करने की सुविधा हमारे पास है, किन्तु यह निर्णय आपको ही लेना है कि मुझे किस विभाग में लेना चाहते हैं। फिर भी, अध्यापकी और जर्नलिज़्म, लगता है, मेरे मन का काम होगा। इसे लेकर मैं अभी काम शुरू करूँ। फिर सुविधानुसार अन्य कामों को भी हाथ में ले सकता हूँ।
मेरे लिए नौकरी छोड़ने का अर्थ है दारिद्र्य व्रत ग्रहण करना। फिर भी वेतन के सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं कहूँगा। भोजन-वस्त्र मुझे मिल जाय, इतना ही मेरे लिए पर्याप्त होगा।
मैं यदि प्रतिबद्ध होकर काम में लगूँ तो ऐसा विश्वास है कि यहाँ के दो-एक बंगाली मित्रों को भी अपने साथ कर लूँगा।
स्वदेश सेवा के जिस महायज्ञ की आयोजना हो रही है, बंगाल में, आप उसके प्रमुख पुरोहित हैं। मुझे जो कुछ कहना था वह मैंने कह दिया—अब आप मुझे अपने विपुल कार्य में कहीं नियोजित कर लें।
नौकरी छोड़ते ही यहाँ मुझसे लोग पूछेंगे कि मैं देश लौटकर क्या करूँगा। अतः स्वयं के सन्तोष के लिए और लोगों के समक्ष सेल्फ़ जस्टीफ़िकेशन के लिए यह जानने को उत्सुक हूँ कि मैं किस योग्य हो सकूँगा।
आशा है ये बातें सम्प्रति गोपनीय रहेंगी।
आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें। इति-
विनीत,
सुभाषचन्द्र बसु

तरुणाई के सपने

हम इस संसार में किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए, किसी सन्देश को प्रचारित करने के लिए जन्म ग्रहण करते हैं। जगत् को ज्योति प्रदान करने कि लिए आकाश में यदि सूर्य उदित होता है, वन प्रदेश में सौरभ बिखेरने को आदि डालों में फूल खिलते हैं और अमृत बरसाने को नदियाँ यदि समुद्र की ओर बह चलतीं हैं तो हम भी यौवन का परिपूर्ण आनन्द और प्राणों का उत्साह लेकर मृत्युलोक में किसी सत्य की प्रतिष्ठा के लिए ही आये हैं। जो अज्ञात एवं महत् उद्देश्य हमारे व्यर्थतापूर्ण जीवन को सार्थक बनाता है, उसे चिन्तन एवं जीवन-अनुभव द्वारा पाना होगा।
सभी को आनन्द का आस्वाद कराने के लिए हम यौवन के पूर्ण ज्वार में तैरते आये हैं। कारण, हम आनन्द स्वरूप हैं। आनन्दमय मूर्त विग्रह के रूप में इस मर्त्य में हम विचरण करेंगे। अपने आनन्द में हम हँसेंगे—साथ ही जगत् को भी मतवाला बनाएँगे। जिधर हम विचरेंगे उधर निरानन्द का अन्धकार लज्जा से दूर हट जाएगा। हमारे स्फूर्त स्पर्श के प्रभाव-मात्र से रोग, शोक, ताप दूर होंगे।
इस कष्टमय पीड़ापूर्ण नरक धाम में हम आनन्द-सागर के ज्वार को खींच लाएँगे।
आशा, उत्साह, त्याग और पुरुषार्थ हममें है। हम सृष्टि करने आये हैं, क्योंकि सृष्टि में ही आनन्द है। तन, मन, बुद्धिबल से हमें सृष्टि करनी है। जो अन्तर्निहित सत्य है, जो सुन्दर है, जो शिव है—उसे सृष्ट पदार्थों में हम प्रस्फुटित करेंगे। आत्मदान में जो आनन्द है, उस आनन्द में हम खो जाएँगे। उस आनन्द का अनुभव कर पृथ्वी भी धन्य हो उठेगी। फिर भी हमारे देय का अन्त नहीं है, कर्म का भी अन्त नहीं है, क्योंकि-
‘जॅतो देबो प्राण बहे जाबे प्राण
फुराबे ना आर प्राण;
एतो कथा आछे, एतो गान आछे
एतो प्राण आछे मोर;
एतो सुख आछे, एतो साध आछे
प्राण हये आछे भोर।’

अनन्त आशा, असीम उत्साह, अपरिमित तेज और अदम्य साहस लेकर हम आये हैं, इसलिए हमारे जीवन का स्त्रोत कोई नहीं रोक पाएगा। अविश्वास और नैराश्य का विशाल पर्वत ही क्यों न सम्मुख खड़ा हो अथवा समवेत मानव जाति की प्रतिकूल शक्तियों का आक्रमण ही क्यों न हो, हमारी आनन्दमयी गति चिर अक्षुण्ण रहेगी।
हम लोगों का एक विशिष्ट धर्म है, उसी धर्म के हम अनुयायी हैं। जो नया है, जो सरस है, जो अनास्वादित है, उसी के हम उपासक हैं। प्राचीन में नवीनता को, जड़ में चेतना को, प्रौढ़ों में तरुण को और बन्धन के बीच असीम को हम ला बैठाते हैं। हम अतीत इतिहास-लब्ध ज्ञान को हमेशा मानने को तैयार नहीं हैं। हम अनन्त पथ के यात्री अवश्य हैं, किन्तु हमें अजाना पथ ही भाता है—अजाना भविष्य ही हमें प्रिय है। हम चाहते हैं—‘द राइट टु मेक ब्लण्डर्स’ अर्थात ‘भूल करने का अधिकार’। तभी तो हमारे स्वभाव के प्रति सभी सहानुभूतिशील नहीं होते। हम बहुतों के लिए रचना-शून्य और श्रीविहीन हैं।

यही हमारा आनन्द और यही हमारा गर्व है। तरुण अपने समय में सभी देशों में रचना-शून्य और श्रीविहीन रहा है। अतृप्त आकांक्षा के उन्माद में हम भटकते हैं, विज्ञों के उपदेश सुनने तक का समय हमारे पास नहीं होता। भूल करते हैं, भ्रम में पड़ते हैं, फिसलते हैं, किन्तु किसी प्रकार भी हमारा उत्साह घटता नहीं और न हम पीछे हटते हैं। हमारी ताण्डव-लीला का अन्त नहीं है, क्योंकि हम अविराम-गति हैं।
हम ही देश-देश के मुक्ति-इतिहास की रचना करते हैं। हम यहाँ शान्ति का गंगाजल छिड़कने नहीं आते। हम आते हैं द्वन्द्व उत्पन्न करने, संग्राम का आभास देने, प्रलय की सूचना देने। जहाँ बन्धन है, जहाँ जड़ता है, जहाँ कुसंस्कार है, जहाँ संकीर्णता है, वहीं हमारा प्रहार होता है। हमारा एकमात्र काम है मुक्तिमार्ग को हर क्षण कण्टकशून्य बनाये रखना, जिससे उस पथ पर मुक्ति-सेनाएँ अबाधित आवागमन कर सकें।
मानव-जीवन हमारे लिए एक अखण्ड सत्य है। अतः जो स्वाधीनता हम चाहते हैं—उस स्वाधीनता के बिना जीवन धारण करना ही एक विडम्बना है—जिस स्वाधीनता को पाने के लिए युग-युगों से हम खून बहाते आये हैं—वह स्वाधीनता हमारे लिए सर्वोपरि है। जीवन के सभी क्षेत्रों में, सभी दिशाओं में हम मुक्ति-सन्देश प्रचारित करने को जन्में हैं। चाहे समाजनीति हो, चाहे अर्थनीति, चाहे राष्ट्रनीति या धर्मनीति-जीवन के सभी क्षेत्रों में हम सत्य का प्रकाश, आनन्द का उच्छ्वास और उदारता का मौलिक आधार लेकर आते रहे हैं।
अनादि काल से हम मुक्ति का संगीत गुँजाते आये हैं। बचपन से मुक्ति की आकांक्षा हमारी नसों में प्रवाहित है। जनम लेते ही हम जिस कातर कण्ठ से रो पड़ते हैं, वह मात्र पार्थिव बन्धन के विरुद्ध विद्रोह का ही एक स्वर है। बचपन में रोना ही एकमात्र हमारा सहारा है। किन्तु यौवन की देहरी पर कदम रखते ही बाहु और बुद्धि का सहारा हमें मिलता है। और इसी बुद्धि और बाहु की सहायता से हमनें क्या नहीं किया-फिनीसिया, असीरिया, बैबीलोनिया, मिस्त्र, ग्रीस, रोम, तुर्की, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, रूस, चीन, जापान, हिन्दुस्तान—जिस-किसी देश के इतिहास के पृष्ठों में हमारी कीर्ति जाज्वल्यमान है। हमारे सहयोग से सम्राट् सिंहासनासीन होता है और हमारे इशारे पर वह अभय सिंहासन से उतार दिया जाता है। हमनें एक तरफ पत्थर-अभिभूत प्रेमाश्रु रूपी ताजमहल का जैसे निर्माण किया है, वैसे ही दूसरी तरफ रक्त-स्त्रोत से धरती की प्यास बुझायी है। हमारी सामूहिक क्षमता से ही समाज, राष्ट्र, साहित्य, कला, विज्ञान युग-युगों में देश-देश में विकसित होता रहा है। और रुद्र कराल रूप धारण कर हमने जब ताण्डव आरम्भ किया, तब उसी ताण्डव के मात्र एक पद-निक्षेप से कितने ही समाज, कितने ही साम्राज्य धूल में मिल गये हैं।
इतने दिवसों बाद अपनी शक्ति का अहसास हमें हुआ है, अपने कर्म का ज्ञान हमें हुआ है। अब हमारे ऊपर शासन और हमारा शोषण भला कौन करे ? इस नव जागरण वेला में सबसे महत् सत्य है—तरुणों की आत्म-प्रतिष्ठा की प्राप्ति । तरुणों की सोयी आत्मा जब जाग गयी है तब जीवन के चतुर्दिक् सभी स्थलों में यौवन का रक्तिम राग पुनः दिख उठेगा। यह जो युवकों का आन्दोलन है—यह जैसे सर्वतोमुखी है, वैसे ही विश्वव्यापी भी। आज संसार के सभी देशों में, विशेषतः जहाँ बुढ़ापे की शीतल छाया नजर आती है, युवा सम्प्रदाय सर उठाकर प्रकृतिस्थ हो सदर्प मुहिमसर है। किस दिव्य आलोक से पृथ्वी को ये उद्भासित करेंगे, कौन जाने ? ओ मेरे तरुण साथियों, उठो, जागो, उषा की किरण वह वहाँ फैल रही है।

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